टीपू सुल्तान (सुल्तान फतेह अली साहब टीपू; 1 दिसंबर 1751 - 4 मई 1799), जिन्हें आमतौर पर शेर-ए-मैसूर या "मैसूर का शेर" कहा जाता है। दक्षिण में स्थित मैसूर साम्राज्य का भारतीय मुस्लिम शासक थे। वह रॉकेट तोपखाने के अग्रणी थे। उन्होंने अपने शासन के दौरान कई प्रशासनिक नवाचारों की शुरुआत की, जिसमें एक नई सिक्का प्रणाली और कैलेंडर, और एक नई भूमि राजस्व प्रणाली शामिल थी, जिसने मैसूर रेशम उद्योग के विकास की शुरुआत की।
टीपू चन्नापटना खिलौने पेश करने में भी अग्रणी थे। उन्होंने लौह-आवरण वाले मैसूरियन रॉकेटों का विस्तार किया और सैन्य मैनुअल फतुल मुजाहिदीन को चालू किया, उन्होंने एंग्लो-मैसूर युद्धों के दौरान ब्रिटिश सेनाओं और उनके सहयोगियों की प्रगति के खिलाफ रॉकेट तैनात किए, जिसमें पोलिलुर की लड़ाई और श्रीरंगपट्टनम की घेराबंदी भी शामिल थी।[1]
उनके पिता का नाम हैदर अली और माँ का फकरुन्निसाँ था। उनके पिता मैसूर साम्राज्य के एक सैनिक थे लेकिन अपनी ताकत के बल पर वो 1761 में मैसूर के शासक बने।
उनकी वीरता से प्रभवित होकर उनके पिता हैदर अली ने ही उन्हें शेर-ए-मैसूर के खिताब से नवाजा था। अंग्रेजों से मुकाबला करते हुए श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए 4 मई 1799 को टीपू सुल्तान वीरगति को प्राप्त हो गए।
हैदर अली की मृत्यु पार्टोनोवा की लड़ाई के दोरान युध में घायल होने के करण हुए !!
18वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में हैदर अली का देहावसान एवं टीपू सुल्तान का राज्याभिषेक मैसूर की एक प्रमुख घटना है। अपने पिता हैदर अली के पश्चात 1782 में टीपू सुल्तान मैसूर की गद्दी पर बैठे।
अपने पिता की तरह ही वह भी अत्यधिक महत्वाकाँक्षी कुशल सेनापति और चतुर कूटनीतिज्ञ थे यही कारण था कि वह हमेशा अपने पिता की पराजय का बदला अंग्रेजों से लेना चाहते थे, अंग्रेज उनसे काफी भयभीत रहते थे। टीपू सुल्तान की आकृति में अंग्रेजों को नेपोलियन की तस्वीर दिखाई पड़ती थी। वह अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे अपने पिता के समय में ही उन्होंने प्रशासनिक सैनिक तथा युद्ध विधा लेनी प्रारम्भ कर दी थी परन्तु उनका सबसे बड़ा अवगुण जो उनकी पराजय का कारण बना वह फ्रांसिसियों पर बहुत अधिक निर्भरता और भरोसा ।
वह अपने पिता के समान ही निरंकुश थे । वह कट्टर व धर्मान्त मुस्लमान थे।
उनके चरित्र के सम्बन्ध में विद्वानों ने काफी मतभेद है।[2]
मैसूर में एक कहावत है कि हैदर साम्राज्य स्थापित करने के लिए पैदा हुए थे और टीपू रक्षा के लिए। कुछ ऐसे भी विद्वान है जिन्होंने टीपू सुल्तान के चरित्र की काफी प्रशंसा की है।
वस्तुत: टीपू एक परिश्रमी शासक मौलिक सुधारक और अच्छे योद्धा थे। इन सारी बातों के बावजूद वह अपने पिता के समान कूटनीतिज्ञ एवं दूरदर्शी थे, यह उनका सबसे बड़ागुण था। टीपू का नाम उर्दू पत्रकारिता के अग्रणी के रूप में भी याद किया जाएगा, क्योंकि उनकी सेना का साप्ताहिक बुलेटिन उर्दू में था, यह सामान्य धारणा है कि जाम-ए-जहाँ नुमा, 1823 में स्थापित पहला उर्दू अखबार था। वह गुलामी को खत्म करने वाले पहले शासक थे। कुछ मौलवियों ने इस उपाय को थोड़ा बहुत बोल्ड और अनावश्यक माना। टीपू अपनी बन्दूकों से चिपक गए। उन्होंने पूरे जोश के साथ उस लाइन को लागू करने के फैसले को लागू कर दिया जिसमें उनके देश में प्राप्त स्थिति को इस उपाय की आवश्यकता थी। टीपू सुल्तान का सामन्तवाद के प्रति दृष्टिकोण अलग था।
उन्होंने इसे एक बार में समाप्त कर दिया और नतीजा यह है कि आज भी कर्नाटक के किसान - विशेष रूप से पूर्व मैसूर क्षेत्र में - उत्तरी भारत के किसानों से अलग हैं। जमीन के टिलर टीपू के दिनों से ही अपनी पकड़ के मालिक थे। इस उपाय के परिणामस्वरूप, यह क्षेत्र में एक विकसित प्रान्त है। कर्नाटक के किसान भूमि मालिक हैं और उनके बेटों और बेटियों ने शिक्षा में अच्छा किया है।
टीपू सुल्तान भी अपने राज्य के ब्राह्मण पुरोहितों के प्रति निष्ठावान थे और उनके सहयोग की माँग करते थे - यहाँ तक कि उनके द्वारा देवताओं के आशीर्वाद के लिए विशेष प्रार्थना करने का भी अनुरोध किया जाता था। 1791 में श्रीगंगातट के जगतगुरु स्वामी को लिखे उनके पत्र हिन्दू विषयों के साथ उनके उत्कृष्ट सम्बन्धों के प्रमाण हैं। इस दावे के लिए टीपू के कुछ 30 पत्रों को भारतीय पुरातत्व विभाग में संरक्षित किया गया है। दक्षिण भारत के विल्क्स हिस्टोरिकल स्केच।
गांधीजी ने उन सभी इतिहास की पुस्तकों का विमोचन किया, जो टीपू सुल्तान को हिंदुओं धर्मांतरण के लिए मजबूर करती थी। वह सोचते थे कि कन्नड़ भाषा में टीपू के पत्र हिंदुओं के प्रति उनकी उदारता का जीवंत प्रमाण हैं। गांधीजी ने टीपू द्वारा वक्फों (ट्रस्टों) को हिंदू मंदिरों के समानांतर स्थापित किया। उनके महल वेंकटरमन श्रीनिवास और श्री रंगनाथ मन्दिरों के करीब खड़े थे। वह विशेष रूप से मैसूर के शासक की प्रशंसा करते हुए कहते हैं कि शेर के जीवन का एक दिन सियार के Cardinal साल के जीवन से बेहतर होता है।
टीपू का सुसंस्कृत मन था। मोहिबुल हसन के अनुसार, वह बहुमुखी थे और हर तरह के विषयों पर बात कर सकते थे। वह कन्नड़ और हिंदुस्तानी (उर्दू) बोल सकते थे, लेकिन उन्होंने ज्यादातर फ़ारसी में बात की जो उन्होंने आसानी से लिखी थी। उन्हें विज्ञान, चिकित्सा, संगीत, ज्योतिष और इंजीनियरिंग में दिलचस्पी थी, लेकिन धर्मशास्त्र और सूफीवाद उनके पसन्दीदा विषय थे। कवियों और विद्वानों ने उसके दरबार को सुशोभित किया, और वह उनके साथ विभिन्न विषयों पर चर्चा करने के शौकीन थे। वह सुलेख में बहुत रुचि रखते थे, और उनके द्वारा आविष्कृत सुलेख के नियमों पर ""रिसाला डार खत-ए-तर्ज़-ए-मुहम्मदी"" नामक फारसी में एक ग्रन्थ मौजूद है। उन्होंने ज़बरजद नामक ज्योतिष पर एक किताब भी लिखी।
उनकी लाइब्रेरी की अनेक पुस्तकें पैगम्बर मोहम्मद, उनकी बेटी फातिमा और उनके बेटों, हसन और हुसैन के नाम को कवर के मध्य में और चार कोनों पर चार खलीफाओं के नाम के साथ ले जाती हैं। उनकी निजी लाइब्रेरी में अरबी, फ़ारसी, तुर्की, उर्दू और हिन्दी पाण्डुलिपियों के 2,000 से अधिक संगीत, हदीस, कानून, सूफीवाद, हिन्दू धर्म, इतिहास, दर्शन, कविता और गणित से सम्बन्धित हैं।
मंगलोर की संन्धि से भी अंग्रेजों और मैसूर युद्ध समाप्त नहीं हो पाया दोनों पक्ष इस सन्धि को चिरस्थाई नहीं मानते थे। 1786 ई. में लार्ड कार्नवालिस भारत का गवर्नर जनरल बना । वह भारतीय राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के मामले में सामर्थ नहीं था लेकिन उस समय की परिस्थिति को देखते हुए उसे हस्तक्षेप करना पड़ा क्योंकि उस समय टीपू सुल्तान उनका प्रमुख शत्रु था इसलिए अंग्रेजों ने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए निजाम के साथ सन्धि कर ली इस पर टीपू ने भी फ्रांसीसियो से मित्रता के लिए हाथ बढ़ाया ताकि दक्षिण में अपना वर्चस्व स्थापित करें। कार्नवालिस जानता था कि टिपु के साथ उसका युद्ध अनिवार्य है इसलिए वह महान शक्तियों के साथ मित्रता स्थापित करना चाहता था। उसने निजाम और मराठों के साथ सन्धि कर एक संयुक्त मोर्चा कायम किया और इसके बाद उसने टीपू के खिलाफ युद्ध कि घोषणा कर दी इस तरह तृतीय मैसुर युद्ध प्रारम्भ हुआ यह युद्ध दो वर्षों तक चलता रहा प्रारमँभ में अंग्रेज असफल रहे लेकिन अन्त में उनकी विजय हुई। मार्च 1792 ई. में श्री रंगापटय कि सन्धि के साथ युद्ध समाप्त हुआ टीपू ने अपने राज्य का आधा हिस्सा और 30 लाख पौंड संयुक्त मोर्चे को दण्ड स्वरूप दिया इसका सबसे बड़ा हिस्सा कृष्ण ता पन्द नदी के बीच का प्रदेश निजाम को मिला।
कुछ हिस्सा मराठों को भी प्राप्त हुआ जिससे उसकी राज्य की सीमा तंगभद्रा तक बढ़ गई, शेष हिस्सों पर अंग्रेजों का अधिकार रहा टीपू सुल्तान ने जायतन के रूप में अपने दो पुगों को भी कार्नवालिस को सुपुर्द किया। इस पराजय से टीपु सुल्तान को भारी क्षति उठानी पड़ी उनका राज्य कम्पनी राज्य से घिर गया तथा समुद्र से उनका सम्पर्क टुट गया।
आलोचकों का कहना है कि कार्नवालिस ने इस सन्धि को करने में जल्दबाजी की और टीपू का पूर्ण विनाश नहीं कर के भारी भूल की अगर वह टीपु की शक्ति को कुचल देता तो भविष्य में चतुर्थ मैसुर युद्ध नहीं होता लेकिन वास्तव में कार्नवालिस ने ऐसा नहीं करके अपनी दूरदर्शता का परिचय दिया था उस समय अंग्रेजी सेना में बिमारी फैली हुई थी और युरोप में इंग्लैण्ड और फ्रांस के बीच युद्ध की सम्भावना थी। ऐसी स्थिति में टीपू फ्रांसिसीयों की सहायता ले सकते थे अगर सम्पूर्ण राज्य को अंग्रेज ब्रिटिश राज्य में मिला लेते तो मराठे और निजाम भी उससे जलने लगते इसलिए कार्नवालिस का उद्देश्य यह था कि टीपू की शक्ति समाप्त हो जाए और साथ ही साथ कम्पनी के मित्र भी शक्तिशाली ना बन सके इसलिए उन्होंने बिना अपने मित्रों को शक्तिशाली बनाये टीपू की शक्ति को कुचलने का प्रयास किया।
टीपु सुल्तान रंगापट्टी की अपमानजनक सन्धि से काफी दुखी थे और अपनी बदनामी के कारण वह अंग्रेजो को पराजित कर दूर करना चाहते थे, प्रकृति ने उन्हें ऐसा मौका भी दिया लेकिन भाग्य ने टीपु का साथ नहीं दिया। जिस समय इंग्लैण्ड और फ्रांस में युद्ध चल रहा था ,इस अंतरराष्ट्रीय विकट परिस्थिति से लाभ उठाने के लिए टीपू ने विभिन्न देशों में अपना राजदुत भेजे। फ्रांसीसियों को उसने अपने राज्य में विभिन्न तरह की सुविधाएं प्रदान कर अपने सैनिक संगठन में उन्होने फ्रांसीसी अफसर नियुक्त किये और कुछ फ्रांसीसियों ने अप्रैल 1798 ई. [3]
1791 में रघुनाथ राव पटवर्धन के कुछ मराठा सवारों ने शृंगेरी शंकराचार्य के मंदिर और मठ पर छापा मारा। उन्होंने मठ की सभी मूल्यवान सम्पत्ति लूट ली। इस हमले में कई लोग मारे गए और कई घायल हो गए।[4] शंकराचार्य ने मदद के लिए टीपू सुल्तान को अर्जी दी। शंकराचार्य को लिखी एक चिट्ठी में टीपू सुल्तान ने आक्रोश और दु:ख व्यक्त किया। इसके बाद टीपू ने बेदनुर के आसफ़ को आदेश दिया कि शंकराचार्य को 200 राहत (फ़नम) नक़द धन और अन्य उपहार दिये जायें।[4] शृंगेरी मन्दिर में टीपू सुल्तान की दिलचस्पी काफ़ी सालों तक जारी रही, और 1790 के दशक में भी वे शंकराचार्य को खत लिखते रहे। टीपू के यह पत्र तीसरे मैसूर युद्ध के बाद लिखे गए थे, जब टीपू को बंधकों के रूप में अपने दो बेटों देने सहित कई झटकों का सामना करना पड़ा था। यह सम्भव है कि टीपू ने ये खत अपनी हिन्दू प्रजा का समर्थन हासिल करने के लिए लिखे थे।[5]
टीपू सुल्तान ने अन्य हिन्दू मन्दिरों को भी तोहफ़े पेश किए। मेलकोट के मन्दिर में सोने और चाँदी के बर्तन है, जिनके शिलालेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किए थे। ने कलाले के लक्ष्मीकान्त मन्दिर को चार रजत कप भेंटस्वरूप दिए थे। 1782 और 1799 के बीच, टीपू सुल्तान ने अपनी जागीर के मन्दिरों को 34 दान के सनद जारी किए। इनमें से कई को चाँदी और सोने की थाली के तोहफे पेश किए। ननजनगुड के श्रीकान्तेश्वर मन्दिर में टीपू का दिया हुआ एक रत्न-जड़ित कप है। ननजनगुड के ही ननजुनदेश्वर मन्दिर को टीपू ने एक हरा-सा शिवलिंग भेंट किया। श्रीरंगपटना के रंगनाथ मन्दिर को टीपू ने सात चाँदी के कप और एक रजत कपूर-ज्वालिक पेश किया।[6] मान्यता है कि ये दान हिंदू शासकों के साथ गठबंधन बनाने का एक तरीका थे।[7]
4 मई 1799 को 48 वर्ष की आयु में कर्नाटक के श्रीरंगपट्टना में टीपू सुल्तान की बहुत धूर्तता से अंग्रेजों द्वारा हत्या कर दी गयी। हत्या के बाद उनकी तलवार अंग्रेज अपने साथ ब्रिटेन ले गए। टीपू की मृत्यू के बाद सारा राज्य अंग्रेजों के हाथ आ गया। [8]